Thursday, September 25, 2014

विराम

छोड़ दिया वह आवरण कभी न पहनने के लिए
तोड़  दिया वह बंधन कभी न बांधने के लिए
आवरण के वो रंग अभी बिखरे हैं यहीं
बंधन के वो निशाँ अभी ताज़ा हैं मन पर कहीं

यह है अर्ध या न बदलने वाला पूर्ण विराम
क्या कह दूँ मन को जो अभी भी ढूंढें अविराम
क्या यूं ही जीते रहना है उस खोये धागे के अभाव में
या अधूरे जीवन को जीना है पूरा करने के इंतज़ार में

Friday, September 19, 2014

उड़ान

न बाँधो इस अनवरत उन्मुक्त उड़ान को
समय की बेड़ी से इसे सरोकार ही क्यों हो ?
आंतरिक संयम को बाहरी चर्या क्यों,
मन के भावों को शब्दों का बाना क्यों ?

शायद कभी क्षितिज को न छू पाऊँ,
शायद कभी सबसे ऊँचा न उड़ पाऊँ,
शायद क्षमता की सीमा में बंध जाऊं,
पर मन की स्वछंदता को क्यों न पाऊँ |

लौट कर आऊँगी अपने घरोंदे पर फिर भी,
विस्तृत आसमान अधिक अपना सा लगे तो भी |
मन की एक तार काया के बंधनों से है जुडी,
चाहे बाकी सब अपने आशियाँ में हैं सिमटी |

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